Wednesday, 19 March 2014

पलाशमयी ........

मार्च १९, २०१३ 


पलाशमयी ........ 



उसे खुद याद नहीं था कि पलाश से उसे कब प्रेम हुआ। शायद बचपन में ..... नहीं, तब तो पहली बार पलाश से उसका परिचय हुआ था।  

उसके पिता वन विभाग के आला अधिकारी थे।  इसी कारण जंगलों और पेड़ पौधों से उसका परिचय बचपन में ही हो गया था। खुले आसमान के नीचे आज़ाद परिंदे की तरह निश्छल उड़ान भरना तो जैसे उसके स्वभाव का हिस्सा था।  और बाबा की सरकारी नौकरी ने उसके इस अरमान में मानो नयी ऊर्जा भर दी हो।  अगर बाबा का तबादला किसी छोटे शहर में हुआ, तब तो बस आस पास जंगल ही जंगल।  और अगर किसी बड़े शहर में, तो भी जहाँ बंगला मिलता था , वहाँ अनेकों सुन्दर पौधे बंगले के चारो ओर नज़र आते।  

पलाश से उसका प्रथम परिचय झाँसी मे हुआ था।  उसे याद है बाबा की सरकारी गाड़ी में बैठ फिर एक नए सफ़र पर जाना।  चूँकि झाँसी में सभी सुविधाएँ थी इसीलिए बाबा परिवार को अपने साथ इस नयी पोस्टिंग पर ले आये थे।  मीलों तक फैली हुई सुनसान सड़क और सड़क के दोनों ओर लगे पलाश के पेड़।  चूँकि फूलों का मौसम था, इसलिए पत्तियां कम और फूल ज्यादा दिख रहे थे।  बाबा ने उसे बताया था कि अंग्रेजी में इन्हें फ्लेम ऑफ़ फोरेस्ट कहते हैं।  हाँ, ये फ्लेम ऑफ़ फोरेस्ट जैसे ही तो  हैं …मानो जंगल में आग सी लगी हो और हर पंखुड़ी एक लपट सी हो, जो अपने अंदर पूरे जंगल को लील लेना चाहती हो।  

बाबा के अधिकारी वाले बड़े से बंगले के पीछे कई दर्जन पलाश के पेड़ लगे थे।  और सरकारी माली रोज़ उसे टोकरी भर के पलाश के फूल दे जाता।  "अरे ये तो रंग छोड़ता है। . " उसने एक दिन शिकायत करी।  तो दादी बोली, "न री। । वो अपना रंग सबको देता है। " दादी ने पलाश के फूलों को सुखा कर होली के लिए गुलाल बनाना सिखाया।  "ये सबसे अच्छा रंग होता है गुड़िया … कोई नुकसान नहीं और पूजा में भी ले सकते हैं …पवित्र भी और कोमल भी … और एकदम निश्छल … " 

पलाश से उसका परिचय हो चुका था।     

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हाँ, तो बचपन में तो केवल पलाश से उसका परिचय हुआ था।  लेकिन फिर प्रेम कब हुआ ? शायद यौवन की ओर प्रथम पग लेते ही।  दादी बंगाल की थीं , इसलिए उनकी इच्छा थी कि वो शांति निकेतन में कुछ वर्ष बिताये।  इधर बाबा का तबादला भी जल्दी जल्दी होने लगा था। … इसीलिए उसे विश्व भारती में आगे की पढाई के लिए भेज दिया गया।  १७ साल की उम्र में उसका पलाश से फिर एक बार परिचय हुआ।  लेकिन ऐसा परिचय, जिसने उसके लिए पलाश का अर्थ हमेशा के लिए बदल दिया।  

बंगाल में रह कर कोई भी बंगाल की संस्कृति से अछूता नहीं रह पाता।  और सरस्वती पूजा से तो बिलकुल भी नहीं। वो उसका दूसरा साल था शांति निकेतन में। टैगोर की कहानियाँ तो वो पहले भी पढ़ती थी , लेकिन अब उनसे रोमांचित हो उठती थी।  और इस बार, उसने अपनी सहेलियों के साथ सरस्वती पूजा में फूलों के गहने पहनने का निश्चय किया।  

"हम पलाश के फूलों से गहने बनाएंगे।  देवी के लिए भी और अपने लिए भी।  उन्हें शुभ मानते हैं ," देबोनिता ने उससे कहा।  "लेकिन उसने तो रंग बनता है ना … क्या ज़ेवर भी बनते हैं .... ?" उसकी मासूमियत पर सभी ने हँस कर जवाब दिया .... "एक बार पलाश को तुम्हें छूने तो दो , और किसी के छूने में वो मज़ा न आएगा। । " 

आखिर वो भी टोकरी भर के फूल ले ही आयी और बैठी उन्हं नया रूप देने।  
पलाश के उन सुर्ख , लेकिन बेहद नाज़ुक फूलों को हाथ में लिए मानो उसे कोई पुराना पल याद आने लगा  …… कोई पुराना प्रसंग  …… कोई पुराना नाता …… मानो कोई सालों से उससे मिलना चाह रहा हो, उसे छूना चाह रहा हो। … 

वो धीरे से उन फूलों को एक सफ़ेद धागे से पिरोने लगी।  एक माला गले के लिए , एक वेणी के लिए , दो हाथों के लिए और एक बाजूबंद .... और जब तक उसके सारे आभूषण ख़त्म हुए , उसने देखा कि पलाश उसे अपने रंग में रंग चुका था …… उसके फूलों का रंग उसके हाथों को ही नहीं , उसकी आत्मा को भी सराबोर कर चुका था।  

'पलाश' …ये नाम ही नहीं, इसका सर्वस्व उसके सर्वस्व में समा चुका था।    

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उत्कर्षा  । बाबा ने तो यही नाम रखा था उसका। … उनके अनुसार , चार बेटों के बाद उसे पा कर उन्हें बहुत हर्ष और गर्व महसूस हुआ था।  इसीलिए वो उत्कर्षा हो गयी।  उसे हमेशा से ही अपना नाम पसंद था।  भले ही क्लास के अटेंडेंस रजिस्टर में उसका नाम सबसे अंत में आता हो, लेकिन टीना, गीता, लता , स्नेहा जैसे अनगिनत छोटे छोटे नामों के बीच उसे अपना नाम बहुत खूबसूरत और भाव भरा लगता था।  शांति निकेतन में बड़ी नामों वाली सहेलियों में भी उसे अपना नाम बहुत सुहाता था।

"बाबा , क्या मैं अपना नाम बदल सकती हूँ, " उसने धीरे से पूछा। … बाबा ने चश्मे के ऊपर से देखा, और फिर अखबार पढ़ने लगे। … "बोलिये न बाबा। । " उसने उन्हें धीरे से हिलाया।  इस पर उन्होंने सर उठा कर उसे देखा और पूछा "लेकिन क्यों। । तुम्हें तो अपना नाम पसंद था न …… फिर क्यूँ बदलना चाहती हो ? और क्या नाम रखोगी ?" वो धीरे से बोली "पलाशमयी" 

बाबा हँस पड़े। … ये भी कोई नाम हुआ भला।  इसका तो कोई मतलब भी नहीं।  अगर उत्कर्षा जैसा कोई गूढ़ अर्थ वाला नाम ले कर आओ तो विचार करेंगे।  लेकिन अर्थहीन नाम रख कर अपने जीवन को अर्थहीन न बनाओ - कह कर बाबा फिर से अखबार के पन्नों में खो गए … और वो कह भी न पायी कि बाबा इसी नाम में तो मेरे जीवन का सारा अर्थ छुपा है … 

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"अम्मा, क्या मैं दुल्हन के रूप में फूलों के गहने पहन सकती हूँ? ", उसने पूछा। घर में होती तैयारियों के बीच उसका ये सवाल अम्मा को कुछ अटपटा तो लगा, लेकिन भोला भी।  अम्मा भला क्यूँ मना करतीं, बोली "हाँ हाँ। । कल ही तेरे लिए बेले और गुलाब के फूलों के गहने तैयार करवा लेती हूँ।  विवाह कि किसी भी एक रस्म में पहन लीजियो। " "नहीं अम्मा, इन फूलों के नहीं" … "तो ?" ....... "पलाश के गहने अम्मा …… " 

"बुद्धू लड़की। । इस मौसम में कहाँ मिलेंगे पलाश के फूल ? और फिर यहाँ तो पलाश होता भी नहीं है।  कहाँ से मंगवाएँ ?" अगर तेरा पीले का मन है तो गेंदे का बनवा देती हूँ। … वो कह भी न पायी कि अम्मा, मैं पलाशमयी हो जाना चाहती हूँ। .... आखिर गंदों और सोने के गहनो के बीच वो चल पड़ी एक नए और अनजान सफ़र की ओर।  

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शादी के बाद पलाश से कुछ स्नेह कम सा हो गया था पति बहुत प्यार करते थे और ससुराल में भी सब ठीक था।  और फिर मेरठ में तो पलाश होता भी नहीं।  सालों हो गए थे उससे मिले। । तो वो प्रेम केवल उसकी यादों में बस कर रह गया।  घर गृहस्थी , पति और एक नन्ही बिटिया के साथ उसका समय कैसे कट जाता उसे एहसास भी नहीं होता।  पलाश तो बस अब होली के कुछ दिन पहले आने वाली याद सा बन गया।  

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समय आगे चल पड़ा।  उसकी ससुराल झाँसी के पास उनके पैतृक गाँव वापस आ गयी थी।  पति की असमय मृत्यु हो गयी और साथ ही बेटी की भी।  हाँ , लेकिन पलाश से एक बार फिर उसकी मुलाक़ात हुई।  उन जंगल में आग से फूलों को मानो वो अपना चुकी थी।  अक्सर ससुराल में पीछे लगे एक पेड़ के नीचे बैठ अपने आँचल में पलाश के फूलों को भर लेती।  अब ससुराल का रुख उसके लिए बदल चुका था।  वो उनके लिए सिर्फ छोटकऊ मौड़ा की विधवा थी।  एक पलाश ही था , जो उसे उसकी पहचान से जानता था।  

वो वापस अपने घर लौटना चाहती थी , अम्मा और बाबा के पास।  लेकिन बाबा अब थे नहीं और अम्मा भाइयों के साथ रहती थीं।  और बचपन में ढेर सा लाड़ देने वाले कोई भी भाई अब उसे फिर से लाड़ देने को तैयार नहीं थे।

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आखिर उसके ससुराल वाले उसे ईश्वर भक्ति में लीं होने के लिए वृंदावन के एक वृद्ध आश्रम में छोड़ आये।  आते समय, वो अपने साथ एक पलाश का छोटा सा पौधा लेती आयी।  सबने कहा कि वृंदावन की हवा और मिटटी पलाश के पौधों के लिए उचित नहीं होती और ये तो मर जायेगा।  लेकिन उसने हर दिन उसकी पूरे स्नेह से सेवा करी।  

शायद दिन की पूजा में जाना उसके लिए नित्य कर्म नहीं था , लेकिन पलाश के पास जा कर उससे बातें करना और पूरे मन से उसकी मिटटी पानी का ध्यान रखना उसके लिए एक अलिखित सा नियम बन गया था।  और कोई उसे मना भी नहीं करता।  आखिर उससे किसी को कोई परेशानी भी तो नहीं थी।  

वृंदावन कि मिटटी में वो पौधा बड़ा तो हुआ , लेकिन फूलो का रंग कुछ फीका सा था।  "शायद यहाँ का पानी इनके लिए सही नहीं होगा ......." उससे अक्सर मिलने आने वाली एक एन जी ओ की सहायिका, अस्मिता, ने कहा।  वो अक्सर उससे बातें करती थी।  पलाश के बाद उसे ही अपना मानने लगी थी।  

"जानती हो, मेरी एक ही इच्छा है …… " 

"क्या …… " 

"जब मेरे प्राण चले जाएँ, तो मेरी अस्थियों को किसी नदी में न बहाना।  इसी पलाश की जड़ में उन्हें समाहित कर देना …… मैंने लिख दिया है।  हो सके तो इस इच्छा को पूरा करवा देना ……  " 

"लेकिन ये तो अलग सा है।  अगर कोई न माने तो ? इसका तो कोई नियम नहीं है ?" 

"तुम तो मेरे और पलाश के रिश्ते के बारे में समझती हो ना … तुम कर दोगी। … जीवन में अंतिम बार। । बिना किसी नियमों के बंधन से बंधी मैं, अब पलाशमयी होना चाहती हूँ " 

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एक महीने बाद , आश्रम से बुलावा आया।  

"अस्मिता जी। … ये सब कल रात ही हुआ।  आपसे शायद इनका कुछ अधिक स्नेह था।  आपके लिए एक पत्र छोड़ा है। …… " 

अस्मिता जानती थी कि उस पत्र में क्या है।  "आपसे एक अनुरोध है।  मुझे इनकी अस्थियां प्रवाहित करने दें।  देखिये इनका अपना तो कोई है नहीं।  इनके पत्र में भी लिखा है।  " 

"ठीक है।  कल सब हो जायेगा तो आप दो दिन बाद अस्थिकलश ले लीजियेगा।  शायद उन्हें आप मुक्ति दिलवा दें …"

दो दिन बाद अस्मिता को  कलश दे दिया गया।  उसे सब अजीब लग रहा था।  आखिर वो क्यूँ उसकी अंतिम इच्छा को पूरा करना चाह रही थी ? उसके लिए वो अलग सी क्यूँ थी ? शायद उसका पलाश प्रेम उसे सब से अलग करता था।  उसे पलाशमयी बनाता था।  

तीन दिन बाद, अस्मिता ने आश्रम के पीछे लगे उस पेड़ की जड़ में उसकी अस्थियों को मिला दिया।  उसे डर था की कहीं इससे पेड़ को नुक्सान न हो।  कभी कभी हमारा साइंस पढ़ा हुआ दिमाग हमारे दिल के भावों पर हावी होने लगता है।  लेकिन अब उस पौधे कि देखभाल कौन करेगा ? हाँ, यही सही है।  

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पलाश वहीँ रहा।  आश्रम में कुछ और लोग उसे पानी देने लगे थे।  वो मरा नहीं था।  लेकिन शायद जीवित भी नहीं था।  लेकिन कोई उसे मरने नहीं देना चाहता था।  

उस साल , उस पलाश के पेड़ में एक बार फिर फूल आये।  शायद अब तक से सबसे  ज्यादा ....  पूरा वृक्ष मानो केवल फूलों से ही भर गया।  और इस बार , फूलों का रंग हल्का नहीं था।  वो चटक सुर्ख नारंगी रंग के थे।  एक एक पंखुड़ी मानो सुबह से खिलते सूरज से अपना रंग ले कर आयी थी।  

ये उसका ही तो रंग था …… उसके प्यार का, उसके अपनत्व का …… उसके समर्पण का … 

आखिरकार, वो पलाशमयी हो ही गयी। …। 



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